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पितर और प्रेत / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
किसका है यह देश, फैसला होना यह बाकी है
उसका, जिसका मन गैंडे-सा ज्यादा मोटा-भारी
गण्डामन के बाद यहाँ पर अब किसकी है बारी
रेशम का यह देश हुआ है खादी का, खाकी का ।
जो बच्चों की हँसी-खुशी को हँसी-खुशी में मारे
हिरणों के शावक को शेरों के मुँह में जा रक्खे
अखबारों में निरपराध होने का भाषण लिक्खे
ऐसे कलियुग को सतयुग भी कैसे पार उतारे ।
न गण्डे का मोल रहा, न मन का मोल रहा है
लीटर-मीटर में उलझा-सा देश तरक्की पर है
मरघट में यह बड़ी-बड़ी-सी किसकी कोठी घर है
खुले हाट में मरे हुए मूल्यों को तोल रहा है ।
छपरा का है बहुत छपा, पर सच-सच कहाँ छपा है
औघड़ का यह जाप मशानी, नहीं जाप अजपा है ।