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पिता-पुत्री का यह कैसा प्रेम ? / सुबोध सरकार / मुन्नी गुप्ता / अनिल पुष्कर

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बेटी के नाम पर दोष, बाबा के नाम पर दोष
दोष पकड़ा है हमने घात लगाकर
बचाते हुए मार रहे हैं हर दिन
ग़लती की है हम सभी ने ।

बेटी कब कैसे बड़ी हुई
अपनी बेटी कैसे बड़ी होती है
बाबा की आँखों में वह फागुन नहीं
बाबा को सिर्फ़ बेटी को लेकर डर है ।.

बेटी कब कैसे बड़ी हुई
यही वह दिन बाबा बने थे घोड़ा
घोड़े की पीठ पर चढ़ घूमती बेटी
बाबा को देख लड़की भी लड़खड़ाती ।

यही वह दिन जब क्लास सेवेन में थी
यही वह दिन जब वो कॉलेज गई
लाल साड़ी में जैसे उठी हो लहर
बाबा की नीन्द क्षण में टूट गई ।
 
यही वह दिन जब बसन्त के दिनों में
रात के समय कोयल-पुकार सुन
कहा, “बाबा मैं कोयल होऊँगी
जन्म लूँगी हर फाल्गुन में.”

बाबा की आँखों में सब कुछ नहीं होता खुला सा
यह लड़की जैसे – न – लिखी हुई एक किताब
पन्ना-दर-पन्ना रहा हूँ पढ़
न बूझा, फिर भी छोडूँगा नहीं, समझूँगा ज़रूर

कहाँ जाती है, कब घर लौटती है
रात जगकर किसे ईमेल लिखती है ?
रात के समय अचानक फ़ोन आता है
‘सुन रही हो तुम’ – जगाता है उसकी माँ को ।

छोड़ दो न, वह है अपनी तरह से
उसे उसकी तरह रहने दो
बाबा की आँखों में और नीन्द नहीं
बाबा तब बेटी के घर में घुसते हैं

बेटी के कमरे में बेटी तब अकेली थी
टेलीफ़ोन के उधर उसका प्राण था
टेलीफ़ोन के उस ओर उसका हीरो था
पागल करने वाली उसकी तूलिका की तान ।

मेरी छाती पर मेरी पीठ पर रँग
शिल्पी के लड़के ने लगाई अपनी तूली
मेरी पीठ आल्तामिरा* होगी
कहो न बाबा कि कैसे उसको भूले ?

उसी – रात से लड़की बहुत अकेली
उसी – रात से बाबा के हाथ का थप्पड़
लड़की अवाक, ये किसके बाबा हैं वे
ये किसका घर, क्या बचा इसके बाद ?

रसोईघर में माँ का हाथ जलता है
ऑफ़िस में बाबा फ़ाइल फाड़ते हैं
लड़की के घर में ईमेल लिखना जारी है
एक ही फ़्लैट में तीन द्वीप घिरे हैं ।

बाबा की तरफ़ देखने पर लगता है
बाबा अभी दो चेहरे होकर घूमते हैं
रास्ते से दो जन लौट आते हैं
एक ही आदमी दो होकर दीखते हैं ।

क्या चाहते हो तुम मुझसे बाबा ?
मैं तुम्हारी छोटी वही बेटी
मेरे वह बाबा कहाँ गए
कष्ट होता है बाबा की तरफ देखने से ।

कष्ट होता है ? फुफकार उठते हैं वे
जानता नहीं क्या कल कहाँ थी ?
उसी लड़के के स्टूडियो घर में तुम
नँगी होकर मस्ती कर रही थी

लज्जा और भय से तब लड़की
दोनों आँखें ढके अपने कमरे में घुसी
ईमेल खोला, यही आख़िरी चिट्ठी
चिट्ठी के अन्त में चीन्हा नहीं जाता उसे

दूसरे दिन सुबह की बेला में उठ
बाबा देखते हैं नीन्द की दवा खाकर
शीशी के पास छोटी सी पुर्जी
दोनों आँखें खोले सो रही है बेटी ।

‘मेरी आँखें बन्द कर दो’
और नहीं देख पा रहा हूँ
मेरी देह में हाथ न लगे जैसे
बाबा के हाथ में जमी है घृणा

जिस आदमी को देखकर गई मैं
कैसे यह आदमी बाबा हो सकता है ?
बाबा की लड़की, बाबा की तरह होगी ?
तब क्यूँ बाबा, बाबा की तरह नहीं ?

तीन द्वीप एक ही फ़्लैट में थे
तीनों की तीन तरह की भाषा
होली की रात कैसा होली का खेल
पिता-पुत्री का ये कैसा प्रेम ?

मूल बाँग्ला से अनुवाद : मुन्नी गुप्ता और अनिल पुष्कर