पिता और संसार (चार कविताएँ/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़
एक
पिता ही हो सकते थे क्रूर और कामकाजी
सिर्फ़ पिता ही जान सकते थे कि
यह है निर्ममता
संसार में पता नहीं
किस-किसने झेले होंगे उनके प्रहार
पर संसार के सारे प्रहार
अपनी पीठ पर झेलते
पिता लौटते हैं
बच्चों की दुनियाँ में
बच्चों की दुनिया में
संसार से आतंकित रहते हैं पिता
दो
पिता आते हैं फ़ुर्सत में
कि ऐन वक़्त चली जाती है माँ
धीरे-धीरे जान पाते हैं पिता
कि फुर्सत में आना
बच्चों की दुनिया में
फ़ालतू हो जाना है
फ़ैलता रहता है बच्चों का संसार
सिमटते रहते हैं पिता
बच्चों के संसार में
जब तब दुखता है पिता का मन
दुखता है पर ख़ुलता नहीं
जब-तब लगती है ठेस
याद आती है माँ
घर के एक कोने में
केवल माँ से बतियाते हैं पिता
अक्सर कहते
यही होता हैव्
यही होता है संसार
और ख़ुश्क आँखों से रोते हैं पिता
तीन
पिता माली थे
ध्यान में निरंतर रह्ती थी पौध
पेड़ की कल्पना
छाँव और फ़ल की कल्पना थी
पेड़ों की धमनियों में बहता था
पिता का रक्त
पेड़ों की जड़ों में
पिता का पसीना
पेड़ों की साँसों में थी
संसार की हवा
पेड़ों पर पड़ती थी
संसार की धूप
पिता जहाँ बैठते हैं
वहाँ से हटकर पड़ती है
पेड़ों की छाँव
पिता के हिस्से में नहीं आते
पेड़ों के फल
चार
अब जबकि पक चुके हैं बाल
पक चुका है मोतिया
अब जबकि क़दम दो क़दम पर
फूलती है साँस
पिता दूर-दराज़ के मजबूर बंजारे हैं
दूर-दराज़ बसे हैं
बच्चों के संसार
अब जबकि अनवरत सिकुड़ रही है
पिता की काया
पिता के कानों में निरंतर गूँजती है
संसारों की चरमर
पिता के ख़्याल में कहीँ भी नहीं है
ऐसा संसार
जिसे लगे हल्का पिता का भार
पाँच
पिता पैंशन भर नहीं है
न जायदाद
न वसीयत
संसार में पिता सुनते हैं बार-बार
पिता चुप लगा जाते हैं
पिता नहीं कहते
मिथ्याचार मिथ्याचार