भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता की चिंता / रश्मि शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हममें बहुत बात नहीं होती थी उन दिनों
जब मैं बड़ी होने लगी
दूरी और बढ़ने लगी हमारे दरमियाँ
जब माँ मेरे सामने
उनकी जुबान बोलने लगी थीं

चटख रंग के कपड़े
घुटनों से ऊँची फ्रॉक
बाहर कर दिए गए आलमीरे से
साँझ ढलने के पहले
बाजार, सहेलियाँ और
ठंड के दिनों कॉलेज की अंतिम कक्षा भी
छोड़कर घर लौटना होता था

चिढ़कर माँ से कहती -
अँधेरे में कोई खा जाएगा?
क्या पूरी दुनिया में मैं ही एक लड़की हूँ।
पापा कितने बदल गए हैं,
कह रूआँसी-सी हो जाती...

बचपन में उनका गोद में दुलराना
साइकिल पर घुमाना
सिनेमा दिखाना, तारों से बतियाना
अब कुछ नहीं, बस यही चाहते वो
हमेशा उनकी आँखों के सामने रहूँ।

मेरा झल्लाना समझते
चुपचाप देखते, कुछ न कहते वो
हम सबकी इच्छाओं, जरूरतों और सवालों को ले
बरसों तक माँ सेतु बन पिसती रहीं

कई बार लगता-
कुछ कहना चाहते हैं, फिर चुप हो जाते
मगर धीरे - धीरे एक दिन वापस
पुराने वाले पापा बन गए थे वो
खूब दुलराते, पास बुलाते, किस्से सुनाते
माँ से कहते – कितनी समझदार बिटिया मिली है!

यह तो उनके जाने के बाद माँ ने बताया -
थी तेरी कच्ची उमर और
गलियों में मँडराते थे मुहल्ले के शोहदे
कैसे कहते तुझसे कि सुंदर लड़की के पिता को
क्या - क्या डर सताता है...

बहुत कचोट हुई थी सुनकर
कि पिता के रहते उनको समझ नहीं पाई
आँखें छलछला आती हैं
जब मेरी बढ़ती हुई बेटियाँ करती हैं शिकायत
मम्मी, देखो न ! कितने बदल गए हैं पापा आजकल !

-0-