पिता की छतरी / रमेश प्रजापति
पिता के सफ़र में
जरूरी हिस्सा थी छतरी
दुःख-सुख की साथी
सावन की बूँदाबाँदी में
जीवन की अन्तिम यात्रा में
मरघट तक विदा करके पिता को
एक तरफ कोने में बैठी
स्ुाबकती रही मेरे साथ
रस्म-पगड़ी के बाद
मेरे साथ आई शहर तक
पिता का हाथ थामे चुपचाप
रास्ते भर सींचकर
मस्तिष्क की भुरभुरी मिट्टी
अंकुरित करती रही स्मृतियों के
अनगिनत बीज
भादों की तेज बारिश में
छोटे बच्चे-सा दुबका लेती है गोद में
फिर भी पसीज जाता है मन
छत पर अतरती सीलन-सा
तपती धूप में
बैठकर मेरे कँधे पर
चिढ़ाती है अंगूठा दिखाकर
तमतमाते सूरज का मुँह
जब होता हूँ आहत
दुनियादारी के दुःखों से
अनेक पैबन्द लगी पिता की छतरी
रखती है मेरे सिर पर
आशीर्वाद भरे हाथ
करवट बदलते समय में
मौसम पहनाता है जिस तरह
पतझड़ के बाद नई पोशाक
मैंने ओढ़ाई छतरी को
आधुनिकता की चमचमाती चादर
छतरी की जड़
मजबूती से पकड़े हुए है मेरे अंदर
पिता के आदर्शों की मिट्टी
पेड़ की जड़-सी
अब इसकी शाखाओं पर
फूट रही है नई कोंपलें।