पिता की मौत पर / प्रताप सहगल
किसी की मौत की खबर
एक खबर होती है
और पिता की मौत
एक सन्नाटा।
शिराओं में जम जाता है खून
और धड़कनों में
विष।
विष मारता नहीं
तेज़ी से उगा देता है
एक तरल बेल-
बेल
जो मेरे होने को व्याप जाती है।
मरता है कोई
झनझनाने लगते हैं
उससे जुड़े स्वार्थ
पिता की मौत
स्वार्थों के जंगल को काटकर
सिर्फ सन्नाटा
क्यों पैदा करती है?
सन्नाटे का पहाड़
सिर पर उठाए
बैठा पिता के सिरहाने
सुन रहा हूं
मां के खौफनाक चीत्कार।
पहाड़ से पहाड़
टकरा जैसे गिर जाए
बादल से बादल टकरा
जैसे फट पड़े
या फिर उल्का-उल्का से टकराकर
बिगाड़ दे
ब्रह्माण्ड का सन्तुलन
ठीक वैसा
वैसा ही महसूस कर रहा मैं
बैठा खामोश
सिर्फ सोचता
कि क्यों
क्यों नहीं झरती
मेरी पलकों से कोई बूंद
क्यों नहीं उठते
मेरे हाथ
आकाश की ओर
और क्यों नहीं होता
कहीं दूरस्थ स्थित
एक भाव में तेज़ कम्पन
तभी
एक छोटा बच्चा
रोती मां
का स्वांग भरता
किलकारता
ठीक पिता की देह के सामने
आ खड़ा होता है,
मुझे अपने सवाल का
जवाब मिल जाता है
जवाब मिल जाता है
कि
किसी की भी मौत
छीन नहीं सकती
जीवन
पिता की भी नहीं
1985