पिता के जाने पर / मृत्युंजय कुमार सिंह
मुरझाई इक शाखा को
शिखा दिखाकर आया हूँ
हाँ लोगों ,
मैं पिता जला कर आया हूँ!...
चट-चट चटकारती
अग्नि
निगल गयी
मेरे समूचे पिता को
उनके इर्दगिर्द बुनी
सारी संहिता को,
और उसकी उष्णता का
वशीभूत मैं
बस संभालता रहा
अपनी ठिठुरन
सर्दियों से बचने का
गँवयी एक उपकरण
चिता से उठते
धुएँ को भी
समेट रहा था ऐसे
जैसे कोई
जीने का
अंतिम उपाय झटकता हो,
उहापोह, उन्माद में
उद्देश्यहीन भटकता हो
मैं कहाँ कहता हूँ
मेरे पिता को महान
किन्तु कोई दिखे तो समान;
ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु, शिव
आकाश, पाताल के जीव-अजीव
सब सुनें!
ये व्यक्ति
जो मेरा पिता है
है और रहेगा
सबको पता है,
जिसकी छाया में ही
यह पौध उगा
पहचान है
उस आचमन का
जिससे अर्पित गंगाजल भी
वह निगल नहीं पाया,
कुल्ले की तरह पड़ा
सूखता रहा
उसके खुले मुंह में
इक त्रासदी की तरह।
समाधान जुटाते-जुटाते
स्वयं
व्यवधानों में ही पड़ा रहा,
हारा बहुत किन्तु
एक जीत के लिये अड़ा रहा
मैं
उसका पुत्र
उसका ही खडग धर
कहता हूँ -
ख़ून न बहाऊँगा
पर लड़ता ज़रूर जाऊँगा
ईश्वर आशीष दे
मैं फिर से
इस जैसे पिता की
चिता जलाऊँगा!