आधी राह तक आए पिता
मेरे साथ
और उंगली छोड़ दी
घर के दर्पण ने दिनों तक याद किया
उस एक चेहरे को
जो अब उसमें नहीं झाँकता
रसोई की एक खाली जगह पर
दिनों तक डोलती रही उदासी
जहाँ अब कोई थाली परोसी नहीं जाती
आंगन में खाली पड़ी रही
दिनों तक आराम-कुर्सी
बंद पड़ा रहा अख़बार
और ठंडी होती रही एक प्याली चाय
अच्छे दिनों की झाड़ियों में
साँप की तरह दुबके थे बुरे दिन
जहाँ मैं अपनी गुमी हुई
गेंद लेने गया था
स्मृतियों के अंधियारे में
कामना की धूप टपकती है कभी-कभी
कभी-कभी यहाँ रो लेता है
एक जवान-जहान लड़का
अब मैं आपको कैसे बताऊँ
कि मेरे भीतर एक निर्जन मैदान में
आज भी दौड़ रहा है
एक पाँच साल का बच्चा
पिता की एक चपत के लिए तरसता हुआ ।