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पिता दु:ख समझते थें / महेश कुमार केशरी

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पिता गाँव जाते तो पुराने समय में
घोड़ेगाड़ी का चलन था l
स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के
वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता
लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव
तक आते -जाते थें
 इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं
घोड़वान के चेहरे पर हवाईयाँ उड़तीं
पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही इक्के वाले की आँखें ख़ुशी से चमकने लगती l
घोड़े को लगता कि आज उसे ख़ूब
हरी घास खाने को मिलेगी l
इक्के वाला हफ्तों से उपवास चूल्हे
में आग जलती देखता
उसकी आँखों में नूमायाँ
हो जाती रोटी और तरकारी
जरूर उसने आज किसी भले आदमी
 का चेहरा देखा होगा
तभी तो दिख रहीं हैं सवारियाँ
पिता साधारण इंसान थें
मरियल घोड़े पर सवार होना
उन्हें , यातना-सा लगता
लगता उन्हें सश्रम कारावास
की सजा मिल रही है
वो , परिवार के सारे लोगों को
इक्के पर बैठने को कहते
लेकिन , वह ख़ुद घोड़े के बगल से पैदल - पैदल
ही चलते
माँ , बार -बार खिजती कि कैसा भोंभड़ है
मेरा बाप
लेकिन , पिता घोड़े के दु:ख को समझते थें
तभी तो समझते थे , वह रिक्शेवाले के दु:ख को भी
परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे
के साथ चलते ...
चाहे दूरी जितनी लंबी हो
कभी - कभी दु:ख को समझने के लिये
घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता
बस हमें नजरों को थोड़ा सीधा करने
की ज़रूरत होती है l
लोगों का दु:ख हमारे साथ - साथ
चल रहा होता है l
ठीक हमारी परछाई की तरह ही
लोगों का भोंभड़ या मूर्ख सम्बोधन
पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था l
वो जानते थें कि मूर्ख होने का अर्थ अगर
संवेदन हीन होना नहीं है
तो , वह मूर्ख ही ठीक हैं
मूर्ख आदमी कहाँ जानता है
दुनिया के दाँव पेंच !
इससे पिता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था
लोग पिता के बारे में तरह - तरह की बातें
करते
कहतें पिता सनकी हैं
लेकिन , मैं हमेशा यही सोचता हूँ
कि पिता , घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख
समझते थें l
मुझे ये भी लगता है
कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को
पढ़ लेना चाहिए या कि समझ लेना चाहिए
जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा
दु:खी हैं l
पिता समझते थे या सोचते थें
घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में
इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में
हमें भी समझना चाहिए सबके दु:खों को
ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें l