पिता यूँ ही नहीं पिता हो जाते / विमलेश शर्मा
पिता! यूँ ही नहीं पिता हो जाते
किसी छत के बनने से पहले
फ़ौलादी खम्भों की ज़रूरत होती है
और उससे भी पहले मजबूत नींव की
यही कारण है कि वो ज़ज्ब करते हैं नमी
जिससे कई नरम चोटें
उससे उपज़ी कठोरता से टूट जाए
वो अलसुबह उठकर ईंट-ईंट बुनते हैं जज़्बात
ताकि बन सके भरोसे की छत
उसके कलेजे के सबसे नरम हिस्से के लिए
हर बढ़ते कदम के साथ
अक्सर कुछ सख्त नज़र आते हैं पिता
अपने फूलों को आखि़र
दुनिया की बेरहम रवायतों से जो बचाना होता है
और मज़बूत हो जाते हैं पिता
जब रक्त के उस कतरे को
जो कभी उँगली थामे चलता था
शिखर पर चढ़ता देखते हैं
कभी देखनी हो चमक जन्नत नसीब होने की
बस झाँक लेना उन आँखों में
जब वो बतला रहे हो
अपने नन्हें की किसी मामूली उपलब्धि को
ऐतिहासिक,
अमेरिका खोज या ऐवरेस्ट फ़तह करने से भी बड़ा
वो लम्हा वो घड़ी सबसे पाकीज़ा होती है
जब जुबां नहीं आँखें बोला करती हैं
अकसर टूट जाते हैं पिता
जब उनके शहजादे झुलस जाते हैं ताप से
जब उनकी बेटियाँ
काँच सी बिखर जाती हैं
उन क्षणों में वे कोसते हैं उस ईश्वर को
उसके नियम, कानून, कायदों में रद्दोबदल की माँग करते हैं
और अंततः ठुकरा कर उस चौखट को
स्वयं ईश्वर हो जाते हैं पिता
नरम थपकियाँ बन माँ भी बन जाते हैं पिता
कभी गोवर्धन तो कभी संजीवनी बन
उस कुम्हलायी संतति के लिए
अक्सर स्वयं आसमाँ बन जाते हैं पिता
सुना है उस रहमदिल आसमान के नम बादल एकांत में बरसते हैं
मैंने भर्राये हुए
उन बरसते बादलों की गड़गड़ाहट को अक्सर
पिता की नाक में जमते देखा है
पिता की नाक में जमते देखा है!