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पिता / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
Kavita Kosh से
आयी होती है बरात घर पर
पिता देख रहा होता है
सब खुश होकर झूम रहे होते हैं
पिता सोच रहा होता है
दिन एक आता है सबका कभी
पिता बोध रहा होता है
योजना बनाता दामाद कहीं दूर नजर आता है
दिन अपना वह, कर याद रहा होता है
सकुचाती हुई बिटिया उदास मुस्कान लिये
पिता अपने यौवन के दिनों की याद कर
लौट जाता है फिर से जीवन-बरात में
जुटा रहा होता है संवेदनाएं भावों के उद्गार में
बिटिया का गम, बरात की ख़ुशी
पिता होने का दुःख समेटे
दस्तूर है दुनिया की सोच लौट आता है
फिर से अपने संसार में
वह होता है, बिटिया होती है, माँ होती है ॥