पिता / विजय कुमार
माँ नहीं थी
तुम कातर पुकारते थे
रात को नींद में
उस तरफ़ बन्द किसी सुनसान कमरे में निःशब्द
मुझे कुछ नहीं मालूम
तुम्हारे जोड़-जोड़ में दर्द था
दवाइयाँ तुम्हारे लिए बेकार थीं
तुम करवट लेते थे
तुम्हारी हड्डियाँ चटखती थीं
इस कराह को सुनना
फिर हमारी एक आदत बन गई
तुमने एक लम्बा सफ़र काटा अपने में गुम
हम सोते थे अपने-अपने बिस्तरों पर
अपनी बेसुध नींद में
तुम क़रीब थे
तुम बहुत दूर थे
कभी रातों को उठकर देखा मैंने
तुम अन्धेरे में बैठे हुए थे
लगता था कि यह एक जादुई संसार है अनन्त
कुछ-कुछ डरावना भी
और वे ख़ामोशियाँ
अन्धेरे में दिपदिपाती आँखें
और
वे रतजगे तमाम
कभी अपनी मीठी नींद में देखा मैंने
गुनगुने पानी की तरह था
तुम्हारी हथेली का स्पर्श मेरे माथे पर
नहीं मालूम
जाने से पहले
क्या छोड़ा मेरे लिए तुमने
क्या नहीं छोड़ा
एक दिन स्थिर आँखों से
देखा होगा मुझे देर तक
और तुमने विदा ली
जैसे कि थे ही नहीं
जैसे कि कुछ था ही नहीं
मैं हिसाबी-किताबी
किसी दौड़ते - भागते वक्त में गुमशुदा
प्रार्थी, गुजारिशगार
अपराधी, भुलक्कड़
दुनिया के झमेले में
घड़ी की सुइयों के साथ बँधा हुआ
मैं शान्ति खोजता हूँ कैलेण्डर की तारीख़ों में
अर्पण में तर्पण में
पावन नदी के स्नान में
मन्त्रोच्चार में
ओ पथरीली ख़ामोशी वाले पिता !
शान्ति मत देना
मत करना क्षमा
तुम देवताओं की अनुपस्थिति वाला समय हो
सोने मत देना एक सुकून की नीन्द मुझे
वीरान रातों के टिमटिमाते तारों से उतरना
मेरे स्वार्थों की दुनिया में
झाँकते रहना अपनी असहायता में।