भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता / हरे प्रकाश उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



पिता जब बहुत बड़े हो गये
और बूढ़े
तो चीज़ें उन्हें छोटी दिखने लगीं
बहुत-बहुत छोटी

आख़िरकार पिता को
लेना पड़ा चश्मा

चश्मे से चीज़ें
उन्हें बड़ी दिखाई देनी लगीं
पर चीज़ें
जितनी थीं और
जिस रूप में
ठीक वैसा
उतना देखना चाहते थे पिता

वे बुढ़ापे में
देखना चाहते थे
हमें अपने बेटे के रूप में
बच्चों को 'बच्चे' के रूप में
जबकि हम
उनके चश्मे से 'बाप' दिखने लगे थे
और बच्चे 'सयाने'