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पिता / हर्षिता पंचारिया

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पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टलता है माँ का ग़ुस्सा
माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते है पिता
माँ की चुप्पियों की चाबी होते है पिता
माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते है ताले
इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बाँधे रखती है चाबी
और संसार कहता है,
पिता
"बँधे हुए है माँ के पल्लू से"।

पिता के कहने भर से, कहाँ थामते है बच्चे हाथ
बच्चों की गहरी नींद में जागते हुए सपने होते है पिता
ऊब की परछाइयों में
हाथ थामते पिता इतना जानते है कि,
अवसाद कितना भी गहरा हो
उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनूओं से रख देंगे,
मुट्ठी भर रोशनी संसार की विस्तृतता को बढ़ाते हुए
शायद इसलिए
पिता आसमान से होते है।

पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते है
थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में
ताकि थोड़ा थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे उन्हें भी
पिता-सा दुलार ...
जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते है,
हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में
आज भी नहीं मानते मेरे पिता
उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक...
ऐसा कहते रहते है मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से।

कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा
पिता के जाने के बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए
बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का
उँगलियो पर हिसाब रखने वाले पिता,
जब चारों ऊँगलियों को बंद करते हुए
सोचते है कि इन ऊँगलियों से बंद हुई मुट्ठी ही
यदि मेरा भाग्य है
तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है।

पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते है
यहाँ तक वह ख़ुद को भी भूल जाते है
मैं उन्हें ढूँढती हूँ
तलाशती हूँ
यहाँ वहाँ थोड़ा बहुत खोजती हूँ
और वह मंदिर में बैठे "गोपाल" की तरह मुस्कुराते है,
मुझे भजन सुनाते है ...
" ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं "।