पितृपक्ष / राकेश भारतीय
चले गए थे पिता
बारह-तेरह बरस का तब
बच्चा ही था मैं
और थी बीमार माँ
और मुझसे भी छोटे
तीन और बच्चे
कई दिन तक मैं
रोता रहा अकेले में
फिर मेरे पास
रोने का वक्त नहीं रहा
एक जुनून सवार हो गया
समय पर मिलती रहे
माँ को अपनी दवाई
किसी भी तरह नहीं रुके
भाई-बहनों की पढ़ाई
और यह सब करते-करते
पता ही नहीं चला कब
मैँ बड़ा हो गया हूं
हर साल आया पितृपक्ष
न मैं गया गया
न मैंने बाल बढ़ाये
और न मुझे याद रहा
पिता की आत्मा के लिए
पानी का अर्ध्य देना
कोई कहे तो कहता रहे
नास्तिक और परम्पराद्रोही मुझे
पर वहाँ से जहाँ
पिता ने छोड़ा था मुझे
बहुत दूर आ गया हूं मैं
और अभी और दूर जाना है
उनके अधूरे काम पूरे करने के लिए
मेरे पास बिलकुल वक्त नहीं है
किसी की कोई बात सुनने के लिए
पीछे पीछे चल रहे आदमी
उनके हाथों में थमाई गई तख्तियां
थकान से डोलीं या चिढ़ से
उनके मुँह में ठूसे गए नारे
गले तक पहुंचे या हृदय तक
क्या आपस में उन्होंने बात की?
बात की तो किसके बारे में की
अगर मेरे बारे में कोई बात की
तो विरोध का कोई शब्द आया?
कदम दर कदम, पड़ाव दर पड़ाव
जुलूस का नेता बहुत परेशान है
सोच-सोच कर कि क्या सोचते हैं
उसके पीछे-पीछे चल रहे आदमी
फुटपाथ पर दुकान
साहब लोगों का माथा तो
गुस्से से फटने ही लगता है
बाबू लोग भी थोड़ा-बहुत
नाक-भौं सिकोड़ते ही हैं
अगर मजबूरी में ही कभी
इनके पास से गुजरते हैं
पर क्या इतने अवांछित हैं
फुटपाथों पर फैले हुए ये
धूल खाये लाई-चने के
गुण गाते रहते खोमचे वाले
स्टोव पर चाय बना बना
मटमैले गिलासों में पिलाने वाले
उतार फेंके गए कोट-पतलून
बंडी के दाम में बेचने वाले
या और भी न जाने कितने
पिटारे खोल हाँक लगाने वाले
पूछिये ारा ये सवाल उनसे
जो पचास बााार छोड़कर इधर
अक्सर ही आते रहते हैं और
अक्सर ही जिनके पास पैसे
कम या बहुत कम रहते हैं