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पिया बसंत आबी गेलै / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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रे कागा,
आय हम्में तोरा सामना में खाड़ॅ छी निराश
आशे में बसन्तो आबी गेलै
हम्में आपनॅ प्रीतम केॅ
वहेॅ रं कानी-कानी खोजतेॅ रहलियै
जेनां कोयल आरो पपीहा
नै जानौं कतना युगॅ सें
आपनॅ हेरैलॅ प्रीत केॅ खोजी रहलॅ छै।
ग्यारहो मास तोंय झुठ्ठे गगललैं
नै जानौं की-की बोललैं
आरो आय तोंय फेरू छपरी सें लै केॅ अगरी तांय
ढहला भीती सें लैकेॅ ऐंगना तांय उड़ी-उड़ी बैठै छैं
केहनॅ सनेश उचारै छै
की कहै छैं?
की सजी सँवरी केॅ ई जे बसन्त ऐलॅ छै
आमॅ के मंजरी रॅ मौर पिहन्लें
नया पत्ता रॅ परिधानॅ सें सजलॅ
दुलहा बनी केॅ बसन्त नै, हमरे प्रीतम छेकै
मतुर हम्में केनां समझियै है
कि ई हमरे प्रीतम छेकै?
ई हमरॅ प्रीतम हुवै नै पारेॅ
कैन्हें कि प्रीतम जौं होतियै तेॅ दौड़ी केॅ
अंग सें जरूरे लगाय लेनें रहतियै।

ई निर्मोही बसन्त छेकै
हम्में सब जानै छियै
धरती केॅ हरिहर चुनरी पिन्हाय केॅ
किसिम-किसिम के फूलॅ सें सजाय केॅ
मोहक सिंगार कराय केॅ
मुग्घा बनाय केॅ
भरी जुआनी में छोड़ी केॅ चल्लॅ जाय वाला बसन्त
की कामा
ई कहीं हमरे प्रीतम तेॅ नैं छेकै?
कहीं तोहें ठिक्के तेॅ नै कही रहलॅ छै?

हे, हमरॅ जीवनधन तोंही बताबॅ
ई जे कोयल कुहकै छै दिन-रात
आमॅ के ठारी-ठारी पर फुदकी-फुदकी
की ई हमरे टहक भरलॅ बोली छेकै
हमरे कुहरबॅ छेकै
जे आबेॅ तोहों सुनतेॅ रहबौ धरती रहै तक



पिया, देखॅ नी
आमॅ में टिकोला वहेॅ रं ऐलॅ छै
बुतरू सीनो अन्धाधुन्ध ढेलॅ वहेॅ रं चलाबै छै
जेनां हम्में तोंय चलाबै छेलियै
आरो खाय छेलियै दाँत सें छीली-छीली
एक दोसरा सें छीनी-छीनी
हवा-बतासॅ के डरॅ सें निसफिकिर
दौड़ै छेलियै
दूपहरिया रौदी में गाछी के नीच-नीच

प्रीतम, आय ई देखी केॅ तरसै छियै



कागा की कहै छै गगली-गगली?



की
गामॅ के द्वारी-द्वारी पर
रात-रात भर ई जे होरीबाँ होरी गाबै छै
”पिया, बेदर्दी नै ऐलै सुन फागुन में
अरे सगरे..............
अचरज लागै छै कागा
कि यें होरीबा सीनी हमरॅ बात केनां जानी गेलै
हम्में अब तांय केकरौ सेॅ तेॅ नै कहनेॅ छियै
तेॅ फेरू यै सभ्भें जानी गेलै केनां केॅ
जौं नै जानलकै तेॅ गाबै छै केना केॅ

हमरॅ प्रीतम रूसी केॅ जाबै के बात
अत्ते जोरॅ-जोरॅ सें हल्ला करी केॅ कथी लेॅ गाबै छै
सुनॅ पिया!
जबेॅ सभ्भें जानियै गेलै तेॅ आबी जा
आबेॅ डरी केॅ हीं की होतै
बसन्त में छुपी-छुपी केॅ की ऐबॅ।




कांव कांव कांव
आबेॅ केकरो सगुन उचारैं रे कागा
तोरे कहला पर कत्तेॅ हम्में सालेसाल
बारहो महीना
ऋतु ऋतु में खोजलियै प्रीतम केेॅ
सच्चे कहै छियौ रे कागा
जों आबौं आबेॅ तोरा कहला पर
कथील’ घुरी केॅ ऐबॅ, लौटी केॅ जाय छी
जिनगी काटी लेबै हेनै सुखलॅ चानन रं
सुखलौ पर चानन तेॅ चानने छेकै
पानी तेॅ आबै छै जाय छै