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पींजरो / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
चिड़कल्यां कठै’क उड़ उड़ जास्यो ?
धरती ऊपर गगण मंढ्योड़ो
बंद पींजरो ढब रो,
बिना बारणै थां नै बाड़ी
बो कारीगर जबरो,
पांखां मरसी लाज, भुंआळी
खा खा फिरती आस्यो।
चिड़कल्यां कठै’क उड़ उड़ जास्यो ?
ईं इचरज स्यूं भरयै पींजरै
मांय पींजरा केई
थां रै जी रो बणो पींजरो
थां रै निज रो देही,
ओ तो गोरखधंधो ईं स्यूं
ंपार मुसकल्यां पास्यो,
चिड़कल्यां कठै’क उड़ उड़ जास्यो?
इस्यै पींजरै रो कारीगर
दया धरम सै छोड्या,
जीव पंखेरू मौत मिनकड़ी
दोन्यूं सागै रोड्या,
भख भक्षक नै करया एकठा
मांड्यो अजब तमासो।
चिडकल्या कठै’क उड़ उड़ जास्यो ?