भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीछे छूटी हुई चीज़ें / नरेश सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिजलियों को अपनी चमक दिखाने की
इतनी जल्दी मचती थी
कि अपनी आवाज़ें पीछे छोड़ आती थीं
आवाज़ें आती थीं पीछा करतीं
अपनी ग़ायब हो चुकी
बिजलियों को तलाशतीं

टूटते तारों की आवाज़ें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उनकी आवाज़ें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुँच ही नहीं पातीं

कभी-कभी रातों के सन्नाटे में
चौंक कर उठ जाता हूँ
सोचता हुआ
कि कहीं यह सन्नाटा किसी ऐसी चीज़ के
टूटने का तो नहीं
जिसे हम हड़बड़ी में बहुत पीछे छोड़ आए हों !