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पीठ पर हिमालय / गोरख प्रसाद मस्ताना
Kavita Kosh से
वह ढोता है बोरियाँ
उठाता है गठरी
कभी कभी जबाब देने लगती है ठठरी
लेकिन ऋतुओं का रोना नहीं रोता
वह
क्या जेठ क्या माघ
सब सूद खोर की तरह घाघ
लेकिन कर्ज के मर्ज
की दवा है कहाँ
है भी तो दे कौन
गरीब चूप अमीर मौन
घर में गो जवान बेटियाँ
एक अपाहिज पुत्र
एक अंधी मां
अर्धांगिनी साथ में आधी
राह भी नहीं नाप सकी
अब तो संगिनी है लाचारी
रात दिन की मित्र बेचारी
अमीरी की कब्र पर
गरीबी की धूप
टूटी आशा, बिखरे विश्वास
पल पल उच्छ्वास
अपनी ही पीठ पर ढो रहा
अपनी ही लाश
जीवन की हताश
इतनी भारी
मानो पीठ पर हिमालय