भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीड़ाओं के गट्ठर / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
जीवन भर
सपने सिरहाने
रख कर सोए हैं
बार-बार टूटी है मॅंगन
मन की इच्छा की
सुख के कदम पड़े कब घर में
बड़ी प्रतिक्षा की
नरम पलक पर पीड़ाओं के
गट्ठर ढोए हैं
कठिन परीक्षा समय शिकारी
ने अपनी ली है
फूलों से दुश्मनी दोस्ती
कांटों की दी है
हमने नहीं बबूल किसी के
पथ में बोए हैं