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पीड़ाओ का जन्मोत्सव / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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बिखर रही है रूप चन्द्रिका मधुर अग्नि बरसाती रे !
चुपके से आयी जीवन में अभिनव ज्योति जगाती रे !

देखा करते धरा व्योम पर देख न फिर भी पाते है
निर्मोही यह उम्र लूटकर चुपके चुपके जाती है रे !

प्राण विकल याचना किया करते हैं आँसू अर्पित कर
देख देख निरूपाय निराश्रित मन्द मन्द मस्काती रे !

सुनाती नहीं किसी की तिलभर पलभर भी रूकती न कभी।
जब जब होती भेंट जिन्दगी अपना राग सुनाती रे !

जो उठती है लहर लहरकर ठहर कहाँ पाती क्षण भर
गिर जाती है गिाकर फिर से कभी नहीं उठ पाती रे !

कौन उठाता कनौ गिराता कोई समझ न पाया है
जिज्ञासा की तुंग तरंगे हलचल नित्य मचाती रे !

जब तक आती नहीं पास जिन्दगी फूल सी लगती है
आती है जब पास न जाने क्योंकर शूल चुभती रे !

पीड़ाओं का जन्मोत्सव ही कभी न हो सम्पन्न सका
संस्कारों की मधुरिम बेला जाने कब तक आती रे  !

प्राण हाथ पर लिए ढूँढ़ता रोटी वह फुटपाथों पर
और आँख खारे सागर में डुबकी रही लगाती रे !

अश्रु मौक्तिक चुन चुन दृग के द्वार सजाता रहा सदा
किन्तु न आये प्रियतम प्यारे बुझी भावना बाती रे !