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पीड़ा-पुत्रों का तर्पण-जल / विमल राजस्थानी

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उन हथेलियों की मेंहदी तो कब की उतर चुकी होगी री!
मेरे मन में रची महावर को उतार दो तो मैं जानूँ

मन-उपवन के कुंज-कुंज में
सुधियों की तितलियाँ-बसाये
टहनी-टहनी झूम-झूम कर
प्रीत-प्यार के बैन सुनाये

मैं मस्ती में बजा रहा हूँ जीवन-बीन अटपटे स्वर में
मेरे इन अटपटे सुरों को तुम सँवार दो तो मैं जानूँ

तुमने अपने जाने खींची
चिर वियोग की लक्ष्मण-रेखा
चल दी तुम अनजान डगर पर
परिचित पंथ न मुड़ कर देखा

तुमने सीचा-प्रेमी मन का पंछी उड़-उड़ कर हारेगा
बने पैंजनी धुन बेसुध मन को पुकार लो तो मैं जानूँ

तुमने सोचा-प्रेम खेल है
प्यार-प्रीत है आँख-मिचौनी
तुमने समझा तन-गुंफन को
क्षण भर कर सुख मात्र सलोनी

पर वह तो मन से मन के गुँथ जाने की शाश्वत थिरकन है
एक हुए दो मन की छवि-परतें उधार दो तो मैं जानूँ

जिसका हृदय बड़ा होता है
वही झेल पाता मजबूरी
चरणों पर लोटती उसी के
नक्षत्रों में खोयी दूरी

चिरयौवन का इन्द्रधनुष जीवन के ओर-छोर छू जाये
नीची नजरों भी पल भर को तुम निहार लो तो मैं जानूँ

आँखों की उमड़ी यमुना पर
पलकों के कदंब की छइयाँ
सुधियों के विष-व्याल पड़े हैं
डाल कपोलों पर गलबहियाँ

विस्मृति का मरु पी न सकेगा पीड़ा-पुत्रों का तर्पण-जल
अन्तरतम में छिपी पीर के पद पखार लो तो मैं जानूँ

इस झूठे-से गठ-बंधन से
चिर परिचय की ग्रंथि बड़ी है
ठोकर की लालसा लिये यह
शीशे की दीवार खड़ी है

कह दो तो मैं ठोकर मारूँ, मझधारों से तुम्हें उबारूँ
बिना सहारे डगमग नैया को उबार लो तो मैं जानूँ

-21.1.1976