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पीड़ा आई पीड़ा के मन / लाला जगदलपुरी

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विकल करवटें बदल-बदल कर
भोगा हमने बहुत जागरण,
’गहराई’ चुप बैठे सुनती
’सतह’ सुनाते जीवन-दर्शन ।

देव दनुज के संघर्षों का
हमने यह निष्कर्ष निकाला,
’नीलकण्ठ’ बनते विषपायी
जब-जब होता अमृत-मंथन ।

सफल साधना हुई भगीरथ
नयनों में गंगा लहराई,
साँठ-गाँठ में उलझ गए सुख,
पीड़ा आई पीड़ा के मन ।

ऐसे-ऐसे सन्दर्भों से
जुड़ जुड़ गई सर्जना अपनी,
हृदय कर रहा निन्दा जिनकी
मुँह करता है उनका कीर्तन ।

गूँज रही है बार-बार कुछ
ऐसी आवाज़ें मत पूछो;
नहीं सुनाई देता जिनमें
जीवन का कोई भी लक्षण ।