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पीड़ा का वैभव / रुचि बहुगुणा उनियाल

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इतनी निष्ठुर सर्दियाँ
कि शरीर की सारी कोशिकाएँ
सुप्तावस्था में चली जाएँ

मैं जीवित हूँ तुम्हारी याद को लपेटे हुए
मानो हृदय की भीत से लगकर भीतर
जल रही हो सिगड़ी सी कोई

विरह के बाणों से बिंधा मन छलनी हो चुका है
बिंधे मन के रन्ध्रों से
फूट रहा है तुम्हारी याद की
अग्निशिखा का प्रकाश....
शरीर के साथ ही चेहरे पर भी विशिष्ट ओज फैल गया है

कितना छलनी है मन
कि,देखा जा सकता है आर-पार,
कि छलक आता है सुख तुरंत बाहर टिकता ही नहीं
फिर भी तुम्हारी याद इतनी ज़िद्दी
कि छोड़कर जाने का नाम ही नहीं लेती

इससे पहले कि मेरी आत्मा धैर्य की डोर छोड़ दे
तुमसे विरह का दुःख ख़त्म होना चाहिए

संसार में आने और यहाँ से जाने तक का समय नियत होता है
फिर प्रतीक्षा की अवधि भी तय तो करनी चाहिए न

मुझे देखने वाले अक्सर ही कहते हैं.....
तुम दिव्य रूप की स्वामिनी हो
मेरे प्यार......
देखो प्रेम में मिली पीड़ा भी
कितनी गरिमामयी और वैभवशाली होती है!