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पीपल / नीता पोरवाल

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मेरे आँगन के
एक कोने में
अक्सर झाँकने लगता है
एक पीपल
कई बार
काटे जाने के बाद भी
नन्हा सा मेरी तरह


जब तब अपने
हरे नरम चमकते पत्तो के साथ
सबको लुभाता सा
अपनी कुछ सहज मासूमियत के साथ
कि निश्चित इस बार तो
पा सकेगा पूर्णता को वह

शायद नहीं बढ़ेंगे
अब कभी कोई दो हाथ
उखाड़ फेंकने उसके वजूद को
सो ना झेलनी पड़ेगी
वो मृत्यु तुल्य पीड़ा
उसे निश्चित ही इस बार

और इसी दीवानेपन में
झूम लेता है कुछ सोच कर
दे सकूँगा छाँव
कुछ प्राणियों को
कुछ पक्षियों को
फैला सकूँगा मै भी
अपनी शाखों को
इस खुले आसमाँ तले
एक दिन जब
पा लूँगा पूर्ण विस्तार मै

लेकिन फिर एक सुबह
हर बार की तरह
उस नन्हे पीपल की
नरम चमकती हरी
उखड़ी जमीं पर पड़ी पत्तियों को
उस पर ही खिल्ली उड़ाते पाया

कि नादाँ
किस बदगुमानियत का
शिकार हुआ पगले
कोई भी कभी भी
ना पनपने देगा
अपने आँगन में तुझको
सो अबसे सपने देखने का
कोई अधिकार नहीं तुझे
कोई अधिकार नहीं तुझे!!