Last modified on 17 जून 2014, at 03:23

पीर का पनघट हुई है जिन्दगी / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

पीर का पनघट हुई है जिन्दगी
प्यार का मरघट हुई है जिन्दगी

साँस ले पाती न पल भर चैन से
फिक्र का जमघट हुई है ज़िन्दगी

पास अश्क़ों के सिवा कुछ भी नहीं
अश्रु भीगा पट हुई है ज़िन्दगी

छोड़ ख़ुशियों के मुसाफ़िर सब गए
एक सूना तट हुई है ज़िन्दगी

खण्डहर दिल की इमारत हो गई
घुन लगी चौखट हुई है ज़िन्दगी

लुट गया हर कारवाँ उम्मीद का
वक़्त की करवट हुई है ज़िन्दगी

मुन्तज़िर अरमान प्यासे रह गए
एक रीता घट हुई है जिन्दगी

आग के शोले उलगती जा रही
इस क़दर मुँहफट हुई ज़िन्दगी

कोई लम्हा ख़ौफ़ से खाली नहीं
दर्द की आहट हुई है ज़िन्दगी

हल न हो पाती पहेली पेट की
भुखमरी की रट हुई है ज़िन्दगी

चांद भी रोटी नज़र आने लगा
सब तरह चौपट हुई है ज़िन्दगी

दाग़ चेहरे के छुपाने के लिए
रेशमी घूंघट हुई है ज़िन्दगी

आ न पाती है सुलझने में ‘मधुप’
एक उलझी लट हुई है ज़िन्दगी