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पीर विरह की / दरवेश भारती

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जब विरह की वेदना का ही न आँचल उठ सका हो,
किस लिए जीवन मिलन के राग वीणा पर सजाये।

एक अन्तरहीन स्मृति में स्वत्व को क्योंकर भुलाऊँ,
क्यों कुसुम-शृंगार, मुक्ताहार से निज तन सजाऊँ।
क्यों प्रतीक्षा-हेतु पथ पर व्यर्थ नयनों को बिछाऊँ,
क्यों मथित मानस पुनः पावन प्रणय-दीपक जलाये।
किस लिए जीवन मिलन के राग वीणा पर सजाये॥

कौन अभिनव भेंट-आशा में सजाये स्वप्न अभिनव,
कौन पतझर-अंक में अर्पित करे मृदु आस-पल्लव।
कौन बनकर हर्ष-याचक यों सहे निज मान-अभिभव,
कौन अधरों पर व्यथाएँ विषमयी ले मुस्कराये।
किस लिए जीवन मिलन के राग वीणा पर सजाये॥

कौन नद की कालयुक्ता उर्मियों से खेल खेले,
औ' विषादावर्त में अस्तित्व की नौका धकेले।
कौन अगणित यातनाएँ, वेदनाएँ व्यर्थ झेले,
कौन निज सुख-नीड़ पर यों दुखमयी विद्युत गिराये।
किस लिए जीवन मिलन के राग वीणा पर सजाये॥