पीले घर का बच्चा / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
पीले घर का बच्चा
सीढियों में जाने से
डरते हैं रहने वाले
आगंतुक, सुनते हैं पदचापें
पीछा करती, डरातीं
इस दिन में, उस रात में
हर-एक के पास
एक परछाई है
एक किस्सा है
पीला घर चमकता है सूर्य की मानिंद
सदा से यही रंग बचपन का
चाहे झुर्रियां पड़ गईं
पर भूला नहीं स्वाद
शहतूतों का, अमरूदों का
अपने ही आँगन में
पीछा करता है बच्चा
अपनी परछाई का
चले जाओ, छोड़ दो
दूर कहीं चले जाओ
इन स्मृतियों को छोड़कर।
पीला घर चमकता है
पूरी शिद्दत के साथ
समय की रेखाओं में
कब से रह रहे वहीं
जैसे सदियों के तहखाने
सँजोये हड्डियाँ, खोपड़ियाँ
लिखी है जिन पर
ना पढ़ी जा सकने वाली इबारतें
पीले घर का तिलिस्म
उलझता-पुलझता
दिखाता हर जन्म के किस्से
क्या कहीं गये थे?
क्या कहीं से आये हैं?
बस आभासीय अंतरजाल
रोशनी जाने पर ब्लैक होल
अभी सब-कुछ
अभी कुछ भी नहीं
चले जाओ, चले जाओ कहीं दूर
मृत आत्माओं की पदचापें पीछा करती
चाबुक सनसनाती दौड़ाती हैं
चले जाओ, चले जाओ कहीं दूर
पीले घर के तिलिस्म से।
समय के पहिए को
तार से दौड़ाता
बच्चा अपनी परछाई का पीछा करता है
सन-सन हवा सनसनाती है
चमचम धूप चमचमाती है
इतनी दोपहर में
पीला घर चमकता है सूर्य-सा
आमंत्रित करता
अपने जादू को फैलाने को
बच्चे को फँसाने को
पीला घर हँस रहा है
पीला घर डंस रहा है
ओह, कितनी पीड़ा
बिच्छू के डंक जैसी
रक्त-रक्त
पीले सूर्य की लालिमा
चौंधिया रही है आँखें
चौंधियाती है सोच
कदम जैसे ठहर जाते हैं
पीले घर के गर्व के आगे
बच्चा दौड़ रहा है
समय का पहिया
चले जाओ, दूर चले जाओ
तभी छूट पाओगे उस परछाई से।