भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीवी उल्फत के जाम / हीरा प्रसाद 'हरेन्द्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीवी उल्फत के जाम, मने-मन सोचै छी,
सब आशिक छै बदनाम, मने-मन सोचै छी ।

फूहड़ घासोॅ सें बाग-बगीचा छै भरलोॅ,
केना खिलतै गुलफाम, मने-मन सोचै छी ।

घर-घर होलै परचार विदेशी चीजोॅ के,
अब होतै की अंजाम, मने-मन सोचै छी ।

कम्बल ओढ़ी जब घी पीवी मोटैलोॅ छोॅ,
लागै छोॅ सब सद्दाम, मने-मन सोचै छी ।

बेटी बनलै अभिशाप, दहेजोॅ के चलतें,
बेटी सें विधाता बाम, मने-मन सोचै छी ।

छै माल-मवेशी भरलोॅ सड़कोॅ पर पड़लोॅ
गीद्धो गेलै सुरधाम, मने-मन सोचै छी ।

चन्दन के मोल कहाँ बूझै छै सब ‘हीरा’
बेचै लकड़ी के दाम, मने-मन सोचै छी ।