पुकारु नाम / महेश वर्मा
पुकारु नाम एक बेढंगा पत्थर है
एक अनजान पक्षी का पंख, बेक़ीमत का मोती
बचपन के अकारण बक्से में सम्भाल कर रखा हुआ ।
इसे जानने वाले सिर्फ़ तेरह बचे संसार में
सबसे ज़ोर से पुकारकर कहीं से भी बुला लेने वाले पिता
नहीं रहे पिछली गर्मियों में
कभी उन्हीं गर्मियों की धूप पुकारती है पिता की आवाज़ में
घर लौट जाओ बाहर बहुत धूप है
धूप से आगाह करती धूप की आवाज़
पुकारु नाम बचपन की बारिश का पानी है
जिसे बहुत साल के बाद मिलने वाला दोस्त उलीच देता है सिर पर
और कहता है बूढ़े हो रहे हो
मैं उसके बचपन का नाम भूल चुका प्रेत हूँ
मैं उसके सिर पर रेत डाल देता हूँ कि तुम अब भी वैसे ही हो
जवान और खू़बसूरत ।
हम विदा के सफ़ेद फूल एक दूसरे को भेंट करने का मौक़ा ढूँढ रहे हैं
एक पुरानी उदासी का पुकारु नाम हमारी भाषा में गूँजने लगता है ।