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पुकारें तो किसे / राजर्षि अरुण
Kavita Kosh से
सूक्ष्मतम भावनाओं के उलझाव
किस कदर चिपके रहते हैं
अंतर्मन की दीवारों पर
जैसे पत्थरों पर काई
साफ़ भी करने जाएँ तो फिसलने का डर !
इन्हें समझने की कोशिश
बाँधकर उलझा जाती है हमीं को
बंधन से निकलने की कोशिश
और भी मज़बूत कर जाता है बंधन को ।
जीवन के स्रोत
जीवन को अवरुद्ध करते दीखते हैं
पुकारें तो किसे
सबकी गति ऐसी ही है ।
प्रकाशहीन अंतहीन सुरंग
असंख्य अवरोध
अपनी यात्रा का अकेला पथिक
अनुभोक्ता केवल स्वयं का
मैं चला जा रहा हूँ
नदी की भाँति सागर की तरफ़
अपनी गति में अपना अर्थ खोजता ।