पुकार-1 / रूपा सिंह
मैंने पुकारा तुम्हें, एक तस्वीर बन जाने से पहले,
किसी विस्मृति में घुल जाने से पहले,
पुरज़ोर पुकारा तुम्हें ।
रो-रो के आँखें धुल चुकी हैं ।
रोशनी की ओर जाने वाली सभी राहें टटोली हैं ।
जिन सुरंगों से ख़ुशियाँ गुज़रती हैं –
उनका रंग काला है ।
मुझे डराया गया था, जोख़िम लेने से ।
साँचे में ढाल दिए जाने से पहले,
ज़ोर लगाया है, पुकारा है तुम्हें।
मेरे अन्दर की हसरतें और चीत्कार करता हुआ दुःख नहीं खत्म होगा,
जब तक तुम जकड़ न लो मुझको ।
मेरा धधकता माथा उन धड़कनों के पार होगा,
जिसमें छटपटाती होगी तुम्हारी भी मुक्ति-कामना ।
आग, पानी, आकाश, मिट्टी का कच्चा स्वाद
मुँह में भरे, चल-चलेंगें दूर तक,
घूम आएँगें ब्रहमाण्ड तक ।
कर आएँगे ढेरों मटरगश्तियाँ,
उगा आएँगे रँग-बिरँगी तितलियाँ ।
शास्त्रों की मन्त्रणा पर हम ख़ूब हंसेंगे ‘और
ज़िन्दा रखेंगे एक-दूसरे के हौसलों को ।
ख़ून, माँस, मज्जा से पूरी ताक़त ले कर
पुकारती हूँ तुम्हें –
धमकते रास्तों पर सम्भलने,
बियाबान ग़ुमशुदगी में दर्ज होने से पहले,
आ जाना चाहती हूँ तुम्हारे पास
जी लेना चाहती हूँ मुक्त-क्षण को ।
अब क्या सोचना ...
पहले ही कितनी देर हो चुकी है ।