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पुकार रही है धरती / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
भला चीखें भी कारण बनती है
अट्टहास का
सूखे आँसुओं का देश
वह धरती तो नहीं हो सकती।
कहाँ से आए हैं
इतने सारे गिद्ध
रोको इनको
वरना आदमजात तरसेगी
सदियां कोसेंगी
किसने भरा है
यह विष
बहता लहू
टूटती सांसे
बुझते दीए
कैसा मंजर है यह
यों तो वहशी हो जाएगा आदमी।
लौटो वापस
अभी तक गा रही है नदी
तितलियां झूम रही है बाग में
चिडिय़ां तलाश रही है ठिकाना
घौंसला बनाने के लिए।