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पुकार / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
सीढ़ियों के पास नीचे से कोई पुकार रहा है
जबकी कोई सीढ़ियाँ नहीं हैं
ऊपरली मंज़िल ही नहीं : ख़ानाबदोश हम तम्बुओं में रहते हैं
पीछे से कारवाँ में किसी के पुकारने की
आ रही है आवाज़
कोई जानवर नहीं हैं, न बैलगाड़ियाँ न कोई
कारवाँ कहीं को जाता हुआ
ख़ानाबदोश नहीं हैं : हम रुके हुए लोग हैं
एक जगह रुके हुए थे जहाँ पर कि जिसे ऊब कर
कभी कुनबा कहते थे कभी सराय कभी शहर अपना
यहाँ भी सुनाई दे रही है पुकार :
ख़ानाबदोशों के नक़्शे में नहीं
न पहली मंज़िल पर रहने वाले
वाचक के के कमरे की दीवार पे लगे नक़्शे में
कहीं ऐसी कोई जगह ही नहीं थी किसी नक़्शे में
कोई पुकार कहाँ होती ?