पुकार / शिरीष कुमार मौर्य
चौंक कर देखता हूँ
अपने बिलकुल आसपास
ढहने के बीच से एक बार पुकारते तो हैं मेरे पहाड़
उखड़ने के बीच से दरख़्त
गिरने के बीच से पुकारकर सावधान करते हैं पत्थर
अचानक उड़ान खोकर पुकारता है पक्षी
आग के बीच से आँच लपक कर पुकारती है
ज़मीन पुकारती है उसकी गोद में जहाँ लोग थे
अब वहाँ उसकी छाती दबाता ढेर सारा पानी है
या बड़ी-बड़ी इमारतें
मेरी राजधानी किसी को नहीं पुकारती
उसे पुकारा जाए तो सुनती नहीं
हम भाषा को नहीं
महज अर्थ को पुकार रहे हैं
यानी व्यर्थ में पुकार रहे हैं
पुकार की हूक हम भूल गए हैं
जबकि वही अनिवार्य शिल्प है पुकार का
जिन्हें सुनना है
वे सुनने का सलीका खो चुके हैं
यह किस सभ्यता का उत्तरकाल है
हम चीज़ों को पुकार रहे हैं
मनुष्य हमारे अगल-बगल से जा रहे हैं
विचारधारा को पैताने बिठाए कुछ कवि
गीदड़ को मात करते
अलाप रहे हैं मानव-बस्तियों के छोर पर
कविता भी पुकारना छोड़ देगी
एक दिन
सुनने की उस मृत्यु के बाद
श्राद्ध का अन्न खाएँगे आलोचक
मुदित मन घर जाएँगे
पहले भी आते-जाते रहे हैं
सो आएँगे
फिर एक बार
हत्यारों के अच्छे दिन आएँगे
जाएँगे