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पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ / अज्ञेय

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जारिन कैसी हूँ मैं नाथ!
झुका जाता लज्जा से माथ!
छिपे आयी हूँ मन्दिर-द्वार छिपे ही भीतर किया प्रवेश।
किन्तु कैसे लूँ वदन निहार-छिपे कैसेे हो पूजा शेष!
दया से आँख मूँद लो देव! नहीं माँगूँगी मैं वरदान,

तुम्हें अनदेखे दे कर भेंट-तिमिर में हूँगी अन्तर्धान।
ध्यान मत दो तुम मेरी ओर-न पूछो क्या लायी हूँ साथ!
गान से भरा हुआ यह हृदय-अघ्र्य को चित-तत्पर ये हाथ!
पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ!

1934