भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुण्य / राघवाचार्य शास्त्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुण्य पर्वक मन्त्र कवि फूकैत चल।
जगा जीवन-ज्योति नव आनन्दकेँ लूटैत चल।
त्यागि कय आलस निरन्तर
राष्ट्र नव निर्माण कर,
भेद जातिक लीन करइत
मानवक सन्मान कर,
शौर्य तेजक संग्रही बन, वीर-हृदयी आर्ष अतिबल।
उन्नतिक पथ धय परिश्रम-
करति, जनि तोँ बैसि चुप रह,
साम्यवादक नाद करइत
सत्यकेँ बुझबैत ई कह,
ध्यान करइत एक राष्ट्रक कल्पनाक कलाप कय चल।
ललकि लोभक त्याग कय
ललकारइत रण आगु रह,
कड़कि कालक सामने
उत्साहसँ पुनि ठाढ़ रह
भभकि भारत वीर आइ फिरंगि सबकेँ देखइत चल।
बनि पवन उनचास गर्जति
गगन घन बरिसैत रह,
संगठन कर संगठन
संहार अरिकेँ करति रह,
धधकि जो आकाशमे, अंगार बनि बरिसैत जो,
ठनकि जो ठनका बनति योरोपकेँ मोचरैत जो,
ललकि चल लहराइत, सबकेँ देश-हित सन्देश दय चल
जय हिन्द, वन्देमातरम् घन-नाद कय सुनबैत चल।
जनवाद युगजनताक सुख-सौरभ समुन्नतिभय चलय,
देखइत दुश्मन हमर अपमान आसव पिबि मरय,
रोष हो नर-नारिकेँ मुरदामे नव संचार कर
जे नपुंसक हो से पुंसक एहन पाठ पढ़ैत चल।
मातृ कर-पद निगड़ तकरा शीघ्र तोड़क यत्न कर,
दास पदसँ मुक्त कय निज देश भाइ! स्वतन्त्र कर
सुप्त भारतकेँ जगा, युग-ज्योतिकेँ देखबैत चल।
आइ जा बलि-वेदि पर तोँ बलि चढ़ावह देश हित,
मातृ-हित, सन्तान-हित, निज बन्धु-बान्धव भेष हित,
दासता अभिशाप थिक तकरा मेटा पुनि आगु चल।
शान्तिसँ कय क्रान्ति नर संहार नव संचार कर,
दर्द पर दय दर्द दुष्टक दुष्टताक विचार कर,
प्रचार कर विकराल बन, पुनि दुष्टकेँ मारैत चल।
दमकि दामिनि क्रोधमे प्रतिशोध कय प्रतिकार करइत,
आर्त्तताक नकार कय पुनि साधुताक सुधार करइत,
अहह! सबकेँ भस्म करइत पुनः युग निर्माण कय चल।
लपकि नाश फिरंगिकेँ अपलाप जनि कय बैसु आ,
मारैत मुर्दा बना कय पुनि तानकेँ तोड़ैत चल।
कठिन कार्य करैत नव विज्ञान युग आह्वान कर,
ढोंग मात्रक त्याग कय पुनि देश पर अभिमान कर,
मातृ-बन्धन तोड़ तड़फड़ तखन नित निश्चिन्त चल।
कनिक मर्मक बात कय पुनि सबहि क्यौ आगाँ बढ़ब,
एकताक सुमन्त्र लय अभिलाष गिरिपर झट चढ़ब,
जयनाद वन्दे मातरम् जय हिन्द कहि कय आगु चल।
हाथ कय विजयी तिरंगा, लक्ष्यपर सन्नद्ध भय,
उपटि आगाँ शत्रुकेँ सतबैत शोकाशक्त कय,
सुना अभिनव तन्त्र-यन्त्रक सामना तोँ करैत चल।
छोड़ अटकर, वेद विधिसँ प्रेम कर संसार सँ,
पुनः अभिनव साधनाकय लड़ति अत्याचार सँ,
पूजीपतिकेँ नाश कय खल मात्रकेँ मर्दैत चल।