पुत्री होने का अधिकार / श्वेता सिंह
धुंधली आँखों से सुबह का स्वागत
कच्ची-सी नींद के अधूरे सपने छोड़ना
बिखरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ती हुई
चूकती ना कोई दैनिक व्यापार
पर किसने छीना मुझसे बोलो
मीठी-सी झपकी का अधिकार!
परिणय हुआ अग्नि थी साक्षी
अग्नि परीक्षा हुई शुरू, मैं आजीवन परीक्षार्थी
पति की परिणीता को
विवाह की कठिन कसौटी है स्वीकार
पर किसने छीना मुझसे बोलो
पीहर के आँगन का अधिकार!
अपने नन्हों लिए सपने संजोती
उनकी ख़ुशियों से ममता की माला पिरोती
कच्ची मिट्टी से पक्के घरौंदे बनाती
मातृत्व से श्रेष्ठ नहीं कोई पुरस्कार
पर किसने छीना मुझसे बोलो
माता की गोदी का अधिकार!
अविरल चलना चलते रहना
औरों की जय में गौरव चुनना
हों फटे पाँव, या हाथ जले
स्वीकार मुझे नयनों की धार
पर किसने छीना मुझसे बोलो
अधरों की कलियों का अधिकार!
यह जीवन की परिभाषा है; यह नारी की मर्यादा है,
पर सत्य किन्तु यह आधा है
हो वधु, पत्नी या हो माता; सब हैं गरिमा से पूर्ण रूप,
शतबार नमन, हो शत-शत जयकार
पर किसने छीना इनसे पूछो
इनके पुत्री होने का अधिकार!!