भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुनरपि / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मानस में
अप्रत्याशित अतिथि से तुम
अचानक आ गये !
माना —
नहीं था पूर्व-प्रस्तुत
आर्द्र अगवानी सजाये,
हार कलियों का लिए,
हर द्वार बन्दनवार बाँधे,
प्रति पलक
उत्सुक प्रतीक्षा में !
तुम्हीं प्रिय पात्र,
अभ्यागत !
बताओ —
नहीं हूँ क्या
सदा से स्वागतिक मैं तुम्हारा ?
हर्ष-पुलकित हूँ,
अकृत्रिम भूमि पर मेरी
सहज बन
अवतरित हो तुम !
सुपर्वा
धन्य हूँ,
कृत-कृत्य हूँ !
पर, यह सकुच कैसी ?
रुको कुछ देर
अनुभूत होने दो
अमित अनमोल क्षण ये !
जानता हूँ —
तुम प्रवासी हो,
अतिथि हो
चाहकर भी
मानवी आसक्ति के
सुकुमार बन्धन में
बँधोगे कब ?
अरे फिर भी....
तनिक... अनुरोध
फिर भी ....!