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पुनरुद्धार की प्रतीक्षा / केदारनाथ अग्रवाल

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कराल नागफनियों के ऊपर
टँगा है मेरे अंतराल में आकाश
कठोर-वृहदाकार-काला;
न सुबह है वहाँ न शाम;
न उड़ते हैं जुगनू न पलक झिपकते हैं तरल तारागण
न नाट्य करते हैं केसर रंगों के नट
एक से एक वशीकर प्यारे;
यहाँ नीड़ों में सोए हैं मुक्त-मौक्तिक
मराल मानसर के
जान लो न तुम मुझे;
मैं हूँ तुम्हारा पड़ोसी
अभाव ग्रस्त
सौतेली माँ का बेटा
उपेक्षित
जर्जर परेशान
राष्ट्र की संसद के सामने
ठूँठ की तरह खड़ा बेकार
पुनरुद्धार के लिए
प्रतीक्षा में
क्षत-विक्षत।

रचनाकाल: १६-०१-१९६१