भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुनर्जन्म / कुमार अनुपम
Kavita Kosh से
मरता हूँ प्रेम में पुनः पुनः जीता हूँ
अगिनपाखी-सा स्वतःस्फूर्त
जैसे फसल की रगों में सिरिजता तृप्ति का सार
जैसे फूल फिर बनने को बीज
लुटाता है सौंदर्य बारबार
सार्थक का पारावार साधता
गिरता हूँ
किसी स्वप्न के यथार्थ में अनकता हुआ
त्वचा से अंधकार
और उठता हूँ अंकुर-सा अपनी दीप्ति से सबल
इस प्राचीन प्रकृति को तनिक नया बनाता हूँ
धारण करता हूँ अतिरिक्त जीवन और काया
अधिक अधिक सामर्थ्य से निकलता हूँ
खुली सड़क पर समय को ललकारता सीना तान
बजाते हुए सीटी।