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पुनर्जीवन / चन्दन सिंह
Kavita Kosh से
दिनभर का भूखा
थका–मान्दा मैं जा रहा था
खाने को कुछ भी नहीं था मेरे पास तो
तलुओं में निकल आए दाँत
भूख
चप्पलों को ही चबाने लगी
चप्पलें घसीटते मैं जा रहा था
वह एक बेहद सँकरी–सी गली थी कि तभी
न जाने किस मकान से आई अचानक छन्न से
मछली तलने की करवाइन गन्ध
और भर गई नथुनों में !
मेरे मुँह में पानी आ गया यहाँ तक
कि मुझे वह एक तालाब ही लगा छोटा-सा
बस तभी मैं रोक नहीं पाया अपने को ज़ोर से पुकार उठा,
‘ओ कड़ाही में तली जाने वाली मछलियो !
ओ मरी हुई, कटी हुई हल्दी में लिपटी मछलियो !
आओ, यहाँ आओ
मेरे पास, मेरे मुँह में
जो दरअसल एक तालाब है
आओ उसमें और तैरो !
आओ उसमें और फिर से जी उठो !’