पुनर्जीवन / भारतेन्दु प्रताप सिंह
वातायन में गरजता, टूटते ज्वार का प्रवाह,
जिसमें समुद्र–उबड़ खाबड़ सतहों पर
मीलों से दौड़ता हुआ, ला पटकता है किनारे,
समेटी हुयी लहरों की उच्श्रृंखलता और उनका मनमानापन
जिसे तुम ज्वार कहते हो।
लौटता हुआ खारा पानी, फिर भी रोता जाता है
उसका रोम-रोम चकनाचूर होकर छिटक जाता है,
जिसे बार-बार पटकती है चट्टानों पर उसकी संवेदनाएँ
उसकी आत्म प्रच्छालन-प्रवृत्ती और
वह शांति पाठ करता है,
अपनी उफनायी गंदगी से छुटकारा पाकर,
जिसे तुम भाटा कहते हो॥
जब जब उसे मिलती है चांद की मद्धिम रोशनी,
वह चुपचाप अपने आप को देखता है–समुद्री सतहों पर,
हिलता डुलता, डगमगाता हुआ,
अपना बनता बिगड़ता चेहरा, अपनी पहचान को॥
छीटें मारती हवा, थपेड़ों में लिपट कर उसे कोंचती है,
बाबा भीगे किनारों के रेत पर बने,
पावों के सफर में कुचली,
किनारे ताड़ के पत्तों में उलझी माँ, आयेगी जिंदा?
फिर एक बार माथे का पसीना
पोंछता है महासागर उठ खड़ा होकर और
टप-टप गिरे, पसीने से स्पंदित
थरथराने लगती हैं लहरें,
दौड़ पड़ती है किनारे-फूँकने प्राण
तुम्हारे पद-चिन्हों को ढूंढती,
जहाँ सिर्फ़ रेत के, कब के चूके अवशेषों के
इक्का दुक्का कणों में या
सिर्फ उनकी यादगारों में कैद हो सकती है
तुम्हारी पहचान॥
फिर तुम कहते हो–धरती ने अंगड़ाई ली,
पुनर्जीवन या पुनरुत्थान की राह पर जैसे
सुलगती राख से उठ कर एक चिंगारी
बन जाय ज्वालामुखी का दहकता लावा॥