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पुनर्स्मरण / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
आह-सी धूल उड़ रही है आज
चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा
मन-सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात
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बात पर आ गई है बात
स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास होके जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी, ढलकी,
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, विदाई तमाम रात आई—
याद रह रह के’ कँपकँपाया गात
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बात पर आ गई है बात