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पुरखे नहीं रहे / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

पुरखे नहीं रहे
पर उनकी थाती अब भी है

ड्योढ़ी पर है ऊँ
और सतिया है चौरे पर
रोज़ सबेरे शंख गूँजता –
जगता पूजाघर

आँगन में जलते
दीये की बाती अब भी है

इन्द्रजाल है रचा हाट ने –
हम उससे जूझे
पुरखों की पत से ही
हमने उसके छल बूझे

जोग लिखी
बाबा की पाती अब भी है

नेह हमारे हिरदय में
अम्मा ने बीजा था
उनके रहते कभी नहीं
सत घर का छीजा था

निभा रहा घर
उस सत की परिपाटी अब भी है