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पुरखों की गन्ध / कुमार कृष्ण

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जितनी बार देखता हूँ अपने पोते का चित्र
उतनी ही बार सोचता हूँ-
कितने वंशों, गोत्रों, ख़ानदानों के ख़ून से
बनता है एक मनुष्य
इस बार जब आया था पूना से
मुंडन-संस्कार पर
लौटते समय अपने सिर पर हाथ फेरते-
कह गया था एक बहुत बड़ी बात-
'मैं पापा की तरह हो गया'
बच्चे एक दिन जब बनते हैं पिता
तब वे भी सोचते हैं इस पृथ्वी के तमाम पुरुषों की तरह-
उनका पुत्र बने उनसे भी बड़ा आदमी
उसके पास हो बड़ा सा बँगला, बड़ी सी कार
उसके हों देश-विदेश में बड़े-बड़े बाज़ार
बहुत कम सोचते हैं पिता-
दुनिया को बड़ी करने की बातें
करने लगते हैं तमाम पिता रिश्तों का व्यापार
नींद में भी सृष्टि की देवी से करता हूँ प्रार्थना-
बड़े बँगले में ले आना तुम
पोते के सपनों में अंजीर का, अख़रोट का पेड़
बरसात के मौसम में जहाँ खेलते थे उसके पिता
एक बार ज़रूर ले जाना तुम उस जगह
जहाँ उसके पिता ने पहली बार सीखा था-
जीवन का अंकगणित
शायद वहीं कहीं मिल जाए उसे
अपने पुरखों की गन्ध
मिल जाएँ लोक-वर्णमाला के
बचे हुए बीज।