भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुरखों ने जो कमाई थी दौलत बची रहे / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
पुरखों ने जो कमाई थी दौलत बची रहे
मौला किसी तरह मेरी इज़्ज़त बची रहे
बेशक न हो मकान कई मंज़िला मगर
सर को छिपाने के लिए इक छत बची रहे
सौ साल जीने की कहाँ मुझको है आरज़ ू
जब तक जियूं शरीर में ताक़त बची रहे
मरने के साथ अंग कोई दान कर चलँू
दुनिया से जाते वक़्त भी ज़ीनत बची रहे
‘अज्ञात’ कोई ऐसा यहाँ काम कर चलूँ
दुनिया में मेरे बाद भी शुहरत बची रहे