पुरजन / विमल राजस्थानी
उसकी आँख में लपट घृणा की, उसी आँख से पानी
दो नावो पर चढ़े हुए हैं ज्ञानी औ‘ विज्ञानी
लगता है-डूबेंगे जैसे वासव डूब गयी है-
भाव-तगत की विकट परिस्थिति लगती निपट नयी है
एक ओर सिद्धान्त धर्म है, ओर दूसरी मन है
कवि मन ही मन हँसता-यह कैसा मानव जीवन है !
रह-रह वासव की स्मृति मन को कुरेद जाती है
नृत्य, मधुर संगीत की कमी हृदय वेध जाती है
अब न वायु पंखो पर धर कर मधु, घर-घर घुमेगी
अब न झनक पायल की श्रुति-प्रिय धरा-गगन-चूमेगी
अब न रूप-शशि-मलय प सुर-अलि मँडरायेंगे
आँसू की दो बूँद गिरा कर मेघ लौट जायेंगे
चौंसठ महल रूप-रानी के प्रेतो के घर होंगे
उल्लू, चमगादड़, श्रृगाल के मिल-जुले स्वर होंगे
उजडेंगे बन-बाग, झाड़ के काँच तड़क टूटेगे
वन्दरवार बिखर जायेंगे, मंगल-घट फूटेंगे
विश्व-सुन्दरी मथुरा नगरी कहाँ ढूँढ पायेगी
जनम-जनम तक स्मृति मधुरिम रूपसि की आयेगी