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पुरतीं न जोपै मोर चंद्रिका किरीट-काज / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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पुरतीं न जोपै मोर चंद्रिका किरीट-काज
जुरतीं कहा न काँच किरचैं कुभाय की ।
कहै रतनाकर न भावते हमारे नैन
तौ न कहा पावते कहूँ दौ ठांय पाय की ॥
मान्यौ हम मान कै न मानती मनाएं बेगि
कीरति-कुमारी सुकुमारी चित चाय की ।
याही सोच माहिं हम होतिं कूबरी के कहा
कूबरी हू होती ना पतोहू नन्दराय की ॥83॥