भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुरवा में वह बात कहाँ अब / निर्मल शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुरवा में वह बात कहाँ अब
एक निरर्थक शोर रह गया ।
 
रैन भरी बोझिल-बोझिल-सी
बाट जोहती पलकें
सावन की आहट से झुककर
उतरे श्याम धुँधलके,
 
लेकिन पावस के मेघों में
केवल गर्जन घोर रह गया ।
 
कोमल कलिमल मधु निरभ्र-सी
नेहसिक्त हेमन्ती,
व्योम वल्लरी के कुन्तल में
सिमटी सी लजवन्ती,

लेकिन कस्तूरी से वंचित
मनमोहन चितचोर रह गया ।
 
घूँघट में भोले अधरों में
बेबस उठते कम्पन
श्वेत चन्द्रिका के सौरभ से
लिपे पुते अन्तर्मन,
 
लेकिन गहरी साँसों में बस
उच्छ्वासों का जोर रह गया ।
 
अनजाने कितना कुछ खोया
कितना गात भिगोया
सुधियाँ लेकर सारा जीवन
केवल धीरज बोया,

लेकिन आमुख सूर्यमुखी का
बस सूरज की ओर रह गया ।