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पुरवा में वह बात कहाँ अब / निर्मल शुक्ल
Kavita Kosh से
पुरवा में वह बात कहाँ अब
एक निरर्थक शोर रह गया ।
रैन भरी बोझिल-बोझिल-सी
बाट जोहती पलकें
सावन की आहट से झुककर
उतरे श्याम धुँधलके,
लेकिन पावस के मेघों में
केवल गर्जन घोर रह गया ।
कोमल कलिमल मधु निरभ्र-सी
नेहसिक्त हेमन्ती,
व्योम वल्लरी के कुन्तल में
सिमटी सी लजवन्ती,
लेकिन कस्तूरी से वंचित
मनमोहन चितचोर रह गया ।
घूँघट में भोले अधरों में
बेबस उठते कम्पन
श्वेत चन्द्रिका के सौरभ से
लिपे पुते अन्तर्मन,
लेकिन गहरी साँसों में बस
उच्छ्वासों का जोर रह गया ।
अनजाने कितना कुछ खोया
कितना गात भिगोया
सुधियाँ लेकर सारा जीवन
केवल धीरज बोया,
लेकिन आमुख सूर्यमुखी का
बस सूरज की ओर रह गया ।